बुधवार से संसद का बजट सत्र प्रारंभ हुआ है। इससे पहले संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्ष के करीब डेढ़ सौ सांसदों का निलम्बन किया गया था। इस सत्र में आशा बंधी थी कि आम चुनाव की दहलीज पर खड़े देश की महापंचायत का अंतिम सत्र तो कम से कम ऐसा होगा जिसमें सत्ता पक्ष, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन तमाम मुद्दों पर जवाब देंगे जो सिलसिलेवार हों, तार्किक हों और तथ्यपरक हों- जिनसे देश जूझ रहा है और जिस पर खुली चर्चा अपेक्षित है। लेकिन ऐसा शायद ही हो, क्योंकि राष्ट्रपति के अभिभाषण से पहले, श्री मोदी ने संसद भवन के बाहर अपने तईं इस सत्र का प्रारम्भ विपक्ष को कोसते हुए किया।
प्रधानमंत्री मोदी के संक्षिप्त उद्बोधन ने साफ कर दिया है कि 17वीं यानी मौजूदा लोकसभा का अंतिम सत्र भी उसी तर्ज पर होने जा रहा है जिसमें विपक्षी सांसद देश के समक्ष ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करना चाहेंगे परन्तु प्रधानमंत्री स्वनिर्मित परम्परा के अनुरूप संसद के बाहर सभाएं एवं रैलियां करते फिरेंगे, अन्य मंत्रीगण मोर्चा सम्हालेंगे, असंतुष्ट सदस्यगण सभा त्याग करेंगे और किसी मौके पर नमूदार होकर मोदी आत्मगान करेंगे, नेहरू से लेकर वर्तमान कांग्रेसी नेताओं तथा समग्र विपक्ष का उपहास करते हुए संसद का सत्रावसान घोषित करा देंगे। हो सकता है कि पहले की भांति कुछ या बहुत से सदस्यों का फिर से निलम्बन देखने को मिले।
जो भी हो, पहले से कोई कयास लगाना उचित तो नहीं परन्तु मोदी कालखंड के दौरान हुए सभी सत्रों पर नजर डालें और याद करें कि उनका हश्र क्या हुआ था, तो इसके अलावा इस सत्र की भी किसी और तरह की परिणति नहीं सूझ सकती। वैसे श्री मोदी ने नये संसद भवन में जाने के बाद कम से कम यह अच्छी परम्परा तो प्रारम्भ की है कि वे सत्र प्रारम्भ होने के पहले मीडिया के समक्ष चन्द मिनटों के लिये ही सही, कुछ कहने लगे हैं।
हालांकि उन्होंने इस लिहाज से अपनी लीक कतई नहीं छोड़ी है कि वे पत्रकारों को सवाल करने की छूट देंय और हमेशा की तरह उनके उद्बोधनों की विषयवस्तु प्रतिपक्षी सदस्यों का अपमान और उपहास ही होता है। सो परिपाटी को बरकरार रखते हुए प्रधानमंत्री ने अपने बुधवार के वक्तव्य में अपने भीतर संचित कटुता की ही पुनर्प्रस्तुति की। उन्होंने विपक्षी सदस्यों के लिये इस बजट सत्र को पश्चाताप करने का अवसर बताया और उन्हें श्लोकतंत्र का चीरहरण करने वाले हुड़दंगियों की श्रेणी में रखा।
नरेन्द्र मोदी का कहना था कि श्अगर वे अपने व्यवहार के बारे में अपने निर्वाचन क्षेत्रों में सौ लोगों से भी बात करें तो उन्हें पता चलेगा कि वे (मतदातागण) भी खुश नहीं होंगे और उन्हें उनके इस तरह के काम भी याद नहीं होंगे। मतदाताओं को उन्हीं के नाम याद रहते हैं जो सकारात्मक रहते हुए सरकार की तीखी आलोचना करते हैं उनका कहना था कि आदतन हुड़दंगी (आशयः मुखर व सरकार विरोधी) सदस्यों के लिये यह आत्मचिंतन का अवसर है जिसे उन्हें हाथ से नहीं जाने देना चाहिये।
निश्चित ही यह वही मोदीनुमा तरीका है जिससे वे विपक्षी दलों से हर-हमेशा डील करते आये हैं। पिछले सत्र में भी उन्होंने इसी तरह का कटाक्ष करते हुए कहा था कि श्विपक्ष को तीन राज्यों की पराजयों का गुस्सा संसद के भीतर कार्यवाहियों के दौरान नहीं निकालना चाहिये। उनका मंतव्य छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान के विधानसभा चुनावों से था जिसमें भाजपा को जीत मिली थी। कहना न होगा कि श्री मोदी ने संसद के बाहर विपक्ष की आलोचना व उन्हें नीचा दिखाने का अवसर नहीं छोड़ा, जो साफ इशारा करता है कि इस सत्र में होने वाली वाली बैठकों एवं चर्चाओं का स्वरूप कैसा होगा।
प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान दरअसल सदन के भीतर अपने बचाव की उनकी रणनीति है। सत्र ऐसे समय में हो रहा है जबकि प्रधानमंत्री मोदी के पूरे 10 वर्षों की तमाम नाकामियों, निरंकुश कार्यप्रणाली, विभाजनकारी नीतियों, हिंसक विचारों तथा अनेकानेक तरह के घोटालों व भ्रष्टाचार लोगों के सामने आ चुके हैं और जिनके बाबत सवाल पूछे जाने लाजिमी हैं। जैसा कि नरेन्द्र मोदी का तरीका है, वे पहले ही सरकार विरोधी प्रश्नों को नकारात्मकता साबित करते हैं, बुधवार को भी उन्होंने सत्र की पूर्वपीठिका तैयार की है। वे बार-बार खुली चर्चा की बात करते हैं लेकिन उनके दोनों ही कालावधियों का इतिहास रहा है, जो संसदीय कार्यवाही के रूप में दर्ज भी है, कि वे स्वयं बहसों से भागते हैं। किसी भी विषय पर उन्होंने संतोषजनक जवाब नहीं दिये हैं।
विभिन्न योजनाओं की नाकामियां हों या राफेल लड़ाकू जहाज खरीदी, नोटबन्दी हो या जीएसटी, कोविड-19 के दौरान लोगों की दुर्दशा हो या मणिपुर की हिंसा- लोगों को कभी याद ही नहीं पड़ता कि किसी भी मुद्दे पर उन्होंने संजीदगी के साथ चर्चा की हो। संसद के अंदर के उनके भाषण आम सभाओं या चुनावी रैलियों में दिये जाने वाले भाषणों से अलग नहीं होते जिनमें उनका उद्देश्य विपक्ष को अपमानित करना एवं खुद को देश का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति बतलाना होता है।
उनके ज्यादातर भाषणों को देखा जाये तो वे गर्वोक्ति के उदाहरणों के अलावा कुछ नहीं होते। पिछले एक सत्र में उन्होंने कारोबारी गौतम अदानी के साथ उनके रिश्तों व उसे बेजा मदद पहुंचाने के आरोपों पर जवाब देने के दौरान खुद को अकेले ही सब पर भारी बताया था। सच तो यह है कि अंतिम सत्र में विपक्ष को नहीं स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और सरकार को आत्मपरीक्षण करना चाहिये।