अभी इस बात पर बिल्कुल न जाएं कि रामराज्य अयोध्या में पहले आया या फिर पूरे यूपी में ही उससे भी पहले आ चुका था, जिसका प्रमाण पत्र खुद प्रधानमंत्री ने सरेआम बांटा था। यह भी भूल जाएं कि वाल्मीकि रामायण में जो परिकल्पना की गई है, उसके मुताबिक रामराज्य में शोक और रुदन का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वहां सभी तृप्त, परिपूर्ण हैं-
सर्व मुदितमेवसित, सर्वो धर्म परो अभवतः, राम मेवानु पश्यन्तो, नाभ्य हिंसा परस्परम एक पखवाड़े पहले से शुरु हुआ हल्ला केवल नारियल पानी और फल के सहारे प्रधानमंत्री की 20 हजार किलोमीटर की यात्राओं के बाद खत्म हुआ। इसमें वे देशभर के सभी खास मंदिरों में गए और इसकी तस्वीरें पूरे देश को दिखाई गईं। हल्ला इस बात का था कि राम आ रहे हैं। यानी इससे पहले देश में भगवान राम का अस्तित्व नहीं था। उन रामलला का भी नहीं, जिन्हें 23 दिसंबर 1949 को महंत राम शिवम दास ने ढहाई गई बाबरी मस्जिद में साजिशन (ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने माना है) रखा था और वह भी तब के डीएम केके नैयर की मदद से।
उस पंडित लाल दास का भी नहीं, जो रामलला विराजमान के पहले पुजारी रहे और जिनकी बाद में हत्या कर दी गई थी। करीब 75 साल से एक तिरपाल के नीचे प्रभु राम अपने लिए एक स्थायी वास का इंतजार करते रहे, लेकिन अब जो विराजमान हैं, वे मंगलुरु के एक शिल्पकार अरुण योगीराज की पांच साल के एक बालक की परिकल्पना हैं। तमाम अखबारों के इश्तिहार और मीडिया चैनलों के कार्यक्रम दुनियाभर में इस सच्चाई के गवाह हैं कि प्रभु राम प्रधानमंत्री की उंगली पकड़कर अयोध्या के राम मंदिर में आए और खुद प्रधानमंत्री ने उनमें प्राण फूंके। प्राण प्रतिष्ठा में यजमान बने डॉ. अनिल मिश्र और उनकी पत्नी ऊषा मिश्र भी विधि-विधान से नदारद हो गए, क्योंकि कैमरे के सामने सिर्फ प्रधानमंत्री ही नजर आए।
नदी घाटी सभ्यता के पांच हजार साल के इतिहास में कृषि प्रधान भारत को हमेशा उत्सवों के रंग में नहाते देखा गया है। उत्सव, यानी खान-पान, गीत-संगीत, मेल-मिलाप, ढेर सारी गतिविधियां और सुनी-सुनाई कहानियां। भारत इन उत्सवों में हमेशा से ताकत खोजता नजर आया है, लेकिन इन उत्सवों का राजनीतिकरण, भीड़ की ताकत, बाजार की छौंक और इन सभी को सत्ता प्राप्ति का साधन बनाने का प्रयास 2014 के बाद से हुआ है। अब हालत यह है कि भारत उत्सवों के साथ इंवेंट प्रेमी देश भी बन गया है, जहां हर आयोजन का एक खास प्रायोजन होता है। यह सब लिखने का कारण यह है कि प्रभु राम को प्रधानमंत्री दक्षिण के एक शहर से इसी कालखंड में लेकर आए हैं। ये वे रामलला नहीं हैं जो 75 साल का इतिहास जानते हैं।
दूसरी तरफ, केंद्र सरकार के एक भी मंत्री ऐसे नहीं हैं, जिन्होंने यह नहीं कहा हो कि बीते 75 साल में देश में कुछ भी नहीं हुआ। हालांकि तब के रामलला विराजमान को भी पता है कि अयोध्या में राम मंदिर को बनाने वाली कंपनी श्लार्सन एंड टुब्रोश् के निर्माण और डिजाइन के पीछे दिमाग उस आईआईटी-मुंबई का लगा हुआ था, जो कांग्रेस के प्रगतिशील अतीत का प्रतिबिंब है। रामलला कहीं-न-कहीं यह भी जानते होंगे कि श्लार्सन एंड टुब्रो ने 2020 में राम मंदिर को निशुल्क बनाने की पेशकश की थी। सूत्रों के हवाले से मीडिया रिपोर्ट कहती हैं कि श्री राम तीर्थ क्षेत्र के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के महासचिव चंपत राय श्लार्सन एंड टुब्रो कंपनी के संपर्क में थे।
इस कंपनी की तहेदिल से तारीफ होनी चाहिए कि कर्नाटक में करोड़ों का टैक्स बचाकर उसने मुफ्त में राम मंदिर बनाकर देश सेवा की असीम मिसाल पेश की है, लेकिन ताजा मीडिया रिपोर्ट यह भी है कि राम मंदिर के निर्माण में 1800 करोड़ का खर्च आया है। यानी मंदिर बनाने के लिए आए 3500 करोड़ के कुल चंदे का लगभग आधा हिस्सा खर्च हो चुका है। इन सभी तात्कालिक परिस्थितियों में रामलला आए और प्राण प्रतिष्ठित हो गए। हालांकि, उनमें जो प्राण फूंके गए, वे तो उनके भीतर उस अंतर्यामी ईश्वर के हैं, जो सर्वज्ञ हैं। बस, स्वरूप पांच साल के बच्चे का है। प्राण प्रतिष्ठा के तीसरे दिन शायद उन्होंने मंदिर का खर्च जांचा हो।
भारत की आर्थिक स्थिति को भी आंका हो। देश में व्याप्त असमानता और धर्म के नाम पर बढ़ती गुंडागर्दी को भी प्रत्यक्ष देखा हो। मुंबई में भीड़ के उन्माद और यूपी की राजधानी लखनऊ में हिंदू उपनिवेशवाद के उस खौफनाक मंजर को भी अपनी अंतर्दृष्टि से देखा हो। ऐसे में जिस उम्र में प्रभु राम प्रतिष्ठापित हुए हैं, उनमें कौतूहल तो हो रहा होगा, क्योंकि यह उनके युग के रामराज्य से बिल्कुल उलट है। खासतौर पर देश में गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं की स्थिति को देखकर, जो उनके राज में कहीं कही-सुनी नहीं गईं। बालक का कौतूहल जिज्ञासा पैदा करता है और जिज्ञासा का समाधान करने के लिए प्रधानमंत्री से बेहतर कोई कालजयी उत्तरदाता नहीं हो सकता। जवाब तो उनको ही देना होगा और वह भी बिना टेलीप्रॉम्प्टर के।
बालक-राम के प्रधानमंत्री से क्या सवाल हो सकते हैं? अगर रामलला प्रधानमंत्री से पूछें कि आप टैक्स के रूप में इकऋे किए गए हर 100 रुपए में 42 रुपए गरीबों, 26 रुपए मिडिल क्लास, 26 रुपए अमीरों और शेष छह रुपए अन्य स्रोतों से वसूलते हैं, लेकिन आपसे पहले जो सरकार थी, वह गरीबों से 28 रुपए और अमीरों से 38 रुपए वसूलती थी, फिर आपने टैक्स का ढांचा क्यों बदल दिया? अंतरदृष्टि पाकर प्रभु श्रीराम ऐसे पेचीदा सवाल इसलिए भी कर सकते हैं, क्योंकि 7000 वीवीआईपी दर्शनार्थियों की भीड़ में उन्होंने ऐसे कई चेहरे देखे, जिन पर घोटाले का दाग था।
उनमें से एक, सदी के महानायक तो अगले ही दिन अयोध्या धाम में 10 लाख की जमीन पौने दो करोड़ में बेचने के इश्तेहार में ही नजर आ गए थे। इसके बाद प्रभु राम प्रधानमंत्री से अगला सवाल पूछ सकते हैं कि आप टैक्स से जुटाए गए 100 रुपए में से जनता की भलाई के लिए सिर्फ 18 रुपए खर्च करते हैं, 15 रुपए पूंजीगत कामों में और 3 रुपए बड़े प्रोजेक्ट के जरिए कॉरपोरेट को खिसका देते हो, क्यों? आपसे पहले की सत्ता लोगों की भलाई के लिए 100 में से 21 रुपए खर्च करती थी।
आपने अपनी प्रजा के लिए खर्च करना कम क्यों किया? मैंने तो अपने रामराज्य में बराबरी को चुना था। क्या आपने वाल्मीकि की रामायण नहीं पढ़ी? मेरे रामराज्य में प्रजा की स्थिति को नहीं जाना? दरअसल, प्रधानमंत्री जिन सवालों से संसद से लेकर मीडिया तक बीते 10 सालों से लगातार बचते रहे हैं, वही सवाल अब प्रभु रामलला उनसे पूछ रहे हैं। उनकी चिंता बढ़ जानी चाहिए, क्योंकि उनकी कथनी और करनी में अंतर तीन दिन में ही प्रभु राम को भी मालूम पड़ चुका है। जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, प्रभु रामलला और परिपक्व होंगे। उनके मन में और भी सवाल होंगे। वे नोएडा के मीडिया के बजाय सोशल मीडिया के और भी करीबी होंगे। क्या देश तब एक और उत्सव, एक और पर्व, एक और आयोजन की तैयारी करेगा?