बहुरूपिये

इत उत मत तुम ताको जी,

अंतर्मन को झांको जी,

आवस्यकता मत खोजो तुम अब

छुपना कितने में जांचो तुम,

खतरा अपनों को कभी न मानो

बहुरूपियों को छांटो तुम,

क्या कहता है ध्येय तुम्हारा

गुन गुन के तो बांचो तुम,

कौन आया है मित्र या शत्रु

सोच समझकर नाचो तुम।

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ छग