बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वर्तमान दौर की राजनीति के ऐसे सत्ता लोलुप ‘पलटू चाचा’ के नाम से प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ माने जायेंगे जिनके नाम को इतिहासकार उन धोखेबाज सियासतदानों की पंक्ति में रखना पसन्द करेंगे जिन्होंने प्रजातन्त्र में अपने सुख के आगे लोगों के हितों की कुर्बानी देकर समूची प्रणाली को प्रदूषित किया। बिहार के मतदाताओं को राजनीतिक रूप से सबसे सजग समझा जाता है अतः 2024 के लोकसभा चुनाव ही तय करेंगे कि नीतीश बाबू किस व्यवहार के पात्र बनते हैं। मगर नीतीश बाबू ने समय पर जो छाप छोड़ी है वह उन्हें ‘मीर जाफरों’ की कतार में भी खड़ा कर सकती है क्योंकि वह मुख्यमन्त्री बने रहने के लिए अपनी जीवन भर की अर्जित प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगाने के लिए तुले हुए दिखाई पड़ते हैं।
ऐसा नहीं है कि एक सफल राजनीतिज्ञ कहलाये जाने की वजह से उन्होंने इन सभी प्रश्नों पर सोचा नहीं होगा परन्तु उनका अपनी राह से पलटना बताता है कि राजनीति उनके लिए एक ‘तिजारत’ से ज्यादा कुछ नहीं है। बिहार की राजनीति पिछले दो दशकों से उनके इर्द-गिर्द घूम रही है और हर बार उन्होंने सिद्ध किया है कि उनके समाजवादी राजनैतिक सिद्धान्त बाजार की जरूरतों के मोहताज हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि उनकी ‘सैद्धान्तिक कमर’ बहुत कमजोर और लचीली है।
2015 में लालू जी की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ अपनी पार्टी जनता दल(यू) का गठबन्धन करके भारी बहुमत से चुनाव जीतने वाले नीतीश बाबू को जब बिहार की बागडोर लालू जी ने निःसंकोच होकर सौंपी थी तो उसमें राजनैतिक विचारधाराओं का वह विश्वास था जिसे समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया खून के रंग से भी गाढ़ा मानते थे।
मगर 2017 में उन्होंने लालू जी के परिवार पर भ्रष्टाचार के लगे आरोपों में सुर मिलाते हुए गठबन्धन तोड़ दिया और भाजपा के साथ मिलकर रातों-रात सरकार बना ली जबकि लालू जी 2015 के चुनावों से पहले ही अदालत द्वारा एक मामले में दोषी करार दे दिये गये थे और इस वर्ष के चुनावों में उन्होंने जमानत पर रिहा होने के बाद चुनाव प्रचार किया था।
इसके बाद 2020 में विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर लड़ा मगर उनकी हैसियत इन चुनावों में भाजपा की पिछलग्गू पार्टी के तौर पर निखर कर आई क्योंकि 243 की विधानसभा में जनता दल (यू) को 45 और भाजपा को 78 सीटें मिलीं। मगर 2022 में उन्होंने भाजपा से सम्बन्ध इस आधार पर तोड़ा कि भाजपा उनकी पार्टी को ही भीतर से कमजोर करके उन्हें राजनीति में अप्रासंगिक बना रही थी। वह फिर लालू जी की शरण में गये और अपना मुख्यमन्त्री पद सलामत रखा।
अब वह फिर करवट बदल रहे हैं और लालू जी का साथ छोड़ कर पुनः भाजपा की शरण में जा रहे हैं। भाजपा उन्हें अपने साथ पाकर सिवाये प्रसन्न होने के दूसरा काम नहीं कर सकती क्योंकि नीतीश बाबू को वही डर अब फिर से राष्ट्रीय जनता दल से सता रहा है जो 2022 में भाजपा से सता रहा था कि उनकी पार्टी को भीतर से कमजोर किया जा रहा है। इसका मतलब यही निकलता है कि वह बिहार के सर्वाधिक असुरक्षित राजनीतिज्ञ हैं।
इसकी मूल वजह यह है कि वह राजनीति को केवल तिजारत मानते हुए वक्ती बाजार में बिकने वाला माल मानते हैं और इसके मुताबिक ही पाला बदल लेते हैं और फिर उसे सुशासन या सामाजिक न्याय का चोला पहनाने का प्रयास करते हैं तथा जरूरत आने पर राष्ट्रवादी तेवरों में भी छिप जाते हैं। यह अवसरवादिता से ऊपर खुदगर्जी का बेशर्म नमूना है। जिसे नीतीश बाबू ने बिहार में नियम सा बना दिया है। ऐसा तो दल-बदल कानून के रहते बिहार में 1967 के बाद बनी संयुक्त विधायक दलों की सरकारों के दौरान भी नहीं रहा जब केवल कुछ घंटों और दिनों के लिए ही सरकारें बनती-बिगड़ती रहती थीं।
उसमें एक नैतिकता यह थी कि दल-बदल करने वाला या पाला बदलने वाला मुख्यमन्त्री दल-बदल की वजह से ही बहुमत खोने पर अपने पद से इस्तीफा दे देता था। उस दौरान हरियाणा में भी यही नजारा था जहां ‘आया राम’ और ‘गया राम’ नाम के के दो विधायकों ने राजनीति को कुर्सी दौड़ का खेल बना दिया था। मगर इतिहास ने आया राम व गया राम को कूड़ेदान में डालने का ही काम किया है। जहां तक विपक्षी इंडिया गठबन्धन का सवाल है तो नीतीश बाबू कल तक इसके सिपहसालार बने घूम रहे थे।
उनका पल्टी मारना बता रहा है कि उन्होंने राजनीति को बाजार में बिकने वाला बिकाऊ माल बना दिया है। नीतीश बाबू यह समझ रहे हैं कि पिछले 2019 के लोकसभा चुनाव में उनके 17 में से जो 16 प्रत्याशी जीते थे। ये भाजपा के राष्ट्रीय सुरक्षा विमर्श के साये में ही जीते थे वरना उनकी हैसियत तो 2014 में अपने बूते पर जीते केवल दो सांसदों की थी। अब फिर से वह भाजपा के वृक्ष के नीचे छाया तलाशने जा रहे हैं मगर उनकी हालत बिहार की जनता के समक्ष इससे ज्यादा कुछ नहीं रहेगी। ‘‘हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता वरना शहर में ‘गालिब’ की आबरू क्या है?’’