माता कैकेयी की खुशी,
पिता के दुःखों को सिये है ।
प्रेम की मूरत भाई भरत को,
राज्यसिंहासन सौंप दिए है !
सिय के राम भी रोयें है ।
बिन दोष ही चौदह वर्ष,
वनवासी की तरह जीयें है ।
राजपुत्र होकर भी वन में,
सहजता से कुटिया में सोयें है !
सिय के राम भी रोयें है ।
पिता के वचन को निभाने में,
प्राणप्रिये जनकसुता को खोयें है ।
विरह की विभावरी में,
पल पल हर पल जलें है !
सिय के राम भी रोयें है ।
✍️ज्योति नव्या श्री
रामगढ़, झारखण्ड