कल एक बंदा गाड़ी से गिर गया। वह बुरी तरह से कराह रहा था। बीस-तीस की भीड़ जुट गई। उसमें आधे उसके गिरने का मजाक उड़ा रहे थे। बाकी आधे केवल ओह...ऊह...हाय...अरे...अरे...जैसे शब्दों का मंत्रोच्चार करते हुए बड़ी तल्लीनता से अपने इंसानी जन्म का दायित्व निभा रहे थे।
उनमें एक था जो सहायता करने के लिए गिरे हुए को उठाने के चक्कर में खुद इतना झुक गया कि बाकी उसे बेवकूफ समझकर हँसने लगे। उस समय हँसना बहुमत में था। झुककर सहायता करना अल्पमत में। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर जगह बोलबाला बहुमत का चलता है। न कि अल्पमत का।
अल्पमत हमेशा मजाक का खिलौना बनता है। कल ऐसा ही एक खिलौना बहुमत के हाथों खेलने के लिए लग गया। खिलौना निर्जीव हो तो मजा नहीं आता, वही सजीव हो तो कहने ही क्या। पहले तो किसी को विश्वास नहीं हुआ कि इतनी आसानी से खेलने के लिए जिन्दा खिलौना मिल जाएगा। मिलेगा भी क्यों नहीं? बेरोजगार बिना किसी यूनिवर्सिटी गए मक्खी मारने में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर लेते हैं। ऐसे मक्खी मारने वालों के हाथ जिंदा खिलौना लग गया अब कहना ही क्या। उनके मजे ही मजे हैं।
अब इस खिलौने को लेकर पहले बंदर-मदारी का खेला और बाद में कठपुतली का प्रोग्राम खेला गया। इसकी खास बात यह थी कि बन्दर मदारी को नचा रहा था जैसे आजकल मीडिया अदालत की भूमिका निभाती है। मक्खी-मारों ने सोशल मीडिया में खबर फैलाई कि आज शाम को सब लोग फलाना जगह आ जाएँ और जिंदा खिलौने का अच्छा मौका पाएँ। लोग चौंक गए। खबर के जवाब में कई संदेह पनपे। लोग पूछ रहे थे “जिंदा खिलौना क्या होता है?’ 'दीखता कैसा है?'
यह भी जानना चाहते थे कि कहीं इससे एलर्जी-वलर्जी तो नहीं होता? बाजार में असली से लगने वाली नकली दवाइयाँ अक्सर बड़ी बीमारियाँ दे जाती हैं। क्योंकि नकली खिलौने बोलते तो नहीं हैं लेकिन असली जिंदगी के साथ खेल जाते हैं। इसीलिए बहुमत की दुनिया अल्पमत वाले जिंदा खिलौनों से खेलकर अपने झूठे अहम् को मात देने की कोशिश करने को अपनी जिंदगी का फलसफा समझते हैं।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657