काश वो सपना जागे,
जिनसे बुनती आयी मैं
अनन्त पथ के धागे।
उकेरती आयी जिन्हें पन्नों पर,
सस्मित पथिक बन
बढ़ता जाये आगे-आगे।
सुवासित,सुभग सपन सलोने,
अश्रु क्यों आते हैं उनको धोने?
धवल,मुक्ताहल शब्द सजीले,
अंतस के दुःख कंटीले,
मूक वीणा की तान पर
कैसे सजे संगीत सुरीले?
अरुणोदय का लोहित वर्ण,
अश्रुनीर का बना प्रसंग।
मन की वेदना के तार छिड़े,
कलम मेरी कुछ और लिखे।
मेरी लघु सीमा में असीमित अनन्त,
विस्मृति के असंख्य दृगकण।
बुझी लौ की चिंगारी बन,
शब्द समिधा की लपटें,
आयी है आज मुझे जगाने,
कितनी यादें,कितनी बातें।
शून्य ने सीमाहीन स्मृति
का किया आज अभिषेक,
संजोये अंतस पीड़ा का आरेख।
डॉ. रीमा सिन्हा
लखनऊ-उत्तर प्रदेश