अंतः कोलाहल से व्यथित थी मन की नैया,
मीत मेरे तुम बनकर आये खेवैया,
मेरी डूबती हुई कश्ती को तुमने किनारा दिया,
सशक्त नाविक बन मुझे जीने का सहारा दिया...
आशंकाओं के भंवर में फंसी थी मैं,
अंतर्द्वंद्व से अकेली जूझ रही थी मैं।
डूब रही थी व्यथा के सागर में,
तुमने मुझे साहिल का आसरा दिया।
सशक्त नाविक बन मुझे जीने का सहारा दिया...
सत्य है नाव रूपी काया हो कितनी भी दृढ़,
नाविक के करकमलों से ही वह बनती है सुदृढ़।
प्रसन्नचित्त मैं गाऊं,मेरी वीणा को राग मारवा दिया,
सशक्त नाविक बन मुझे जीने का सहारा दिया...
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)