हर साल की तरह सर्दी के मौसम की दस्तक के साथ ही दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को फिर घातक प्रदूषण की चादर ने अपनी चपेट में ले लिया है। फिर से वायु गुणवत्ता का अत्यंत खराब श्रेणी में आना नागरिकों की चिंता बढ़ाने वाला है। एक्यूआई का तीन सौ पार करना इसका ज्वलंत उदाहरण है जो बताता है कि गाल बजाती राजनीति इस संकट के मूल का उपचार करने में सक्षम नहीं है।
ऐसी स्थितियां हर साल आती हैं कभी ठीकरा पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धान उत्पादक किसानों के सिर फोड़ दिया जाता है। कभी दिवाली के पटाखों को जिम्मेदार कह दिया जाता है। लेकिन हमारी जीवनशैली की खामियों पर चर्चा नहीं होती। दरअसल, हर साल इन दिनों तापमान में गिरावट आने व हवा की रफ्तार कम होने से प्रदूषकों को जमा होने का मौका मिल जाता है।
दरअसल, मूल बात यह है कि बेहद तेजी से हुए बहुमंजिला इमारतों के निर्माण से हवा के मूल प्रवाह मार्ग में अवरोध पैदा हो गया है। यह प्रदूषण सिर्फ पराली का नहीं है। बदले लाइफ स्टाइल के चलते हर घर में कई-कई कारें रखने से भी प्रदूषण में इजाफा हुआ है। हमारे नीति-नियंताओं का सबसे बड़े दोष यह है कि वे सार्वजनिक यातायात व्यवस्था को इतना सहज-सरल ढंग से उपलब्ध नहीं करा पाये कि लोग कार सड़कों पर उतारने के बजाय सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें।
फिर नीति-नियंता उस सनातन मानसिकता से ग्रसित हैं जो आग लगने पर कुआं खोदने की प्रवृत्ति से युक्त होती है। हर बार जब संकट सिर पर आ जाता है और सुप्रीम कोर्ट लगातार फटकार लगाता है कि दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो गया, तब दिल्ली सरकार सक्रियता दिखाती है। दरअसल, जो कार्रवाई होती भी है वह प्रतीकात्मक होती है।
मीडिया के जरिये ये दिखाने का प्रयास होता है कि सरकार भाग-दौड़ कर समस्या का समाधान करने को तत्पर है। लेकिन जैसे ही बारिश होने या हवा के रुख में बदलाव से स्थिति में सुधार होता है, सरकार भी शिथिल हो जाती है। दरअसल, दिल्ली के प्रदूषण संकट को समग्र रूप से संबोधित करने की जरूरत है। उन तमाम कारणों पर विचार करने की जरूरत है जो इस संकट के मूल में हैं।
ये कारण हमारे निर्माण कार्य में लापरवाही, सड़कों पर बढ़ते ट्रैफिक जाम, अनियोजित विकास और लगातार बढ़ते जनसंख्या घनत्व में तलाशे जाने चाहिए। सवाल यह है कि सभी सरकारी विभाग समग्र रूप से इस संकट के समाधान के लिये क्यों आगे नहीं आते?
सभी राजनीतिक दल देश की प्रतिष्ठा व लोगों का जीवन बचाने में आगे क्यों नहीं दिखते? क्यों कई एक्सप्रेस वे बनने और बाहरी राज्यों के वाहनों को दिल्ली से बाहर से निकलने की योजना के सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं? वहीं केंद्र सरकार व राज्य सरकार क्यों विचार नहीं करते कि पराली संकट को दूर करने के लिये जो उपाय किये गए हैं, वे जमीनी हकीकत में कितने खरे उतरे हैं?
पराली संकट के समाधान के लिये जो उपाय किये गये हैं, वे क्या किसानों की सुविधा के अनुरूप हैं? क्या इसके लिये फसल चक्र में बदलाव की जरूरत है ताकि खरीफ फसल तैयार होने व रबी की फसल की तैयारी के लिये किसान को पर्याप्त समय मिल सके और किसान पराली जलाने के विकल्प को त्याग सकें। अब चाहे पराली के निस्तारण में सहायक मशीन की व्यावहारिकता का प्रश्न हो या धान के अवशेष को खेत में खत्म करने वाले रसायन के उपयोग का मामला, उसके सभी पहलुओं पर विचार करने की जरूरत है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार वायु प्रदूषण से मरने वाले लाखों लोगों के आंकड़े जारी करता रहता है लेकिन हमारे नीति-नियंता इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आते। यह प्रदूषण उन लोगों के लिये तो बहुत ही घातक है जो सांस व अन्य गंभीर रोगों से ग्रसित हैं। सरकारों को सूक्ष्म कणों पीएम 2.5 के संकट के समाधान के लिये निर्णायक अभियान चलाना होगा।
साथ ही आम लोगों व किसानों को जागरूक करके इस संकट में सहयोग का आग्रह किया जाना चाहिए।फिर जहरीली हवा हर साल की तरह सर्दी के मौसम की दस्तक के साथ ही दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को फिर घातक प्रदूषण की चादर ने अपनी चपेट में ले लिया है। फिर से वायु गुणवत्ता का अत्यंत खराब श्रेणी में आना नागरिकों की चिंता बढ़ाने वाला है।
एक्यूआई का तीन सौ पार करना इसका ज्वलंत उदाहरण है जो बताता है कि गाल बजाती राजनीति इस संकट के मूल का उपचार करने में सक्षम नहीं है। ऐसी स्थितियां हर साल आती हैं कभी ठीकरा पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धान उत्पादक किसानों के सिर फोड़ दिया जाता है। कभी दिवाली के पटाखों को जिम्मेदार कह दिया जाता है।
लेकिन हमारी जीवनशैली की खामियों पर चर्चा नहीं होती। दरअसल, हर साल इन दिनों तापमान में गिरावट आने व हवा की रफ्तार कम होने से प्रदूषकों को जमा होने का मौका मिल जाता है। दरअसल, मूल बात यह है कि बेहद तेजी से हुए बहुमंजिला इमारतों के निर्माण से हवा के मूल प्रवाह मार्ग में अवरोध पैदा हो गया है। यह प्रदूषण सिर्फ पराली का नहीं है। बदले लाइफ स्टाइल के चलते हर घर में कई-कई कारें रखने से भी प्रदूषण में इजाफा हुआ है। हमारे नीति-नियंताओं का सबसे बड़े दोष यह है कि वे सार्वजनिक यातायात व्यवस्था को इतना सहज-सरल ढंग से उपलब्ध नहीं करा पाये कि लोग कार सड़कों पर उतारने के बजाय सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें।
फिर नीति-नियंता उस सनातन मानसिकता से ग्रसित हैं जो आग लगने पर कुआं खोदने की प्रवृत्ति से युक्त होती है। हर बार जब संकट सिर पर आ जाता है और सुप्रीम कोर्ट लगातार फटकार लगाता है कि दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो गया, तब दिल्ली सरकार सक्रियता दिखाती है। दरअसल, जो कार्रवाई होती भी है वह प्रतीकात्मक होती है। मीडिया के जरिये ये दिखाने का प्रयास होता है कि सरकार भाग-दौड़ कर समस्या का समाधान करने को तत्पर है। लेकिन जैसे ही बारिश होने या हवा के रुख में बदलाव से स्थिति में सुधार होता है, सरकार भी शिथिल हो जाती है।
दरअसल, दिल्ली के प्रदूषण संकट को समग्र रूप से संबोधित करने की जरूरत है। उन तमाम कारणों पर विचार करने की जरूरत है जो इस संकट के मूल में हैं। ये कारण हमारे निर्माण कार्य में लापरवाही, सड़कों पर बढ़ते ट्रैफिक जाम, अनियोजित विकास और लगातार बढ़ते जनसंख्या घनत्व में तलाशे जाने चाहिए। सवाल यह है कि सभी सरकारी विभाग समग्र रूप से इस संकट के समाधान के लिये क्यों आगे नहीं आते? सभी राजनीतिक दल देश की प्रतिष्ठा व लोगों का जीवन बचाने में आगे क्यों नहीं दिखते?
क्यों कई एक्सप्रेस वे बनने और बाहरी राज्यों के वाहनों को दिल्ली से बाहर से निकलने की योजना के सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं? वहीं केंद्र सरकार व राज्य सरकार क्यों विचार नहीं करते कि पराली संकट को दूर करने के लिये जो उपाय किये गए हैं, वे जमीनी हकीकत में कितने खरे उतरे हैं? पराली संकट के समाधान के लिये जो उपाय किये गये हैं, वे क्या किसानों की सुविधा के अनुरूप हैं?
क्या इसके लिये फसल चक्र में बदलाव की जरूरत है ताकि खरीफ फसल तैयार होने व रबी की फसल की तैयारी के लिये किसान को पर्याप्त समय मिल सके और किसान पराली जलाने के विकल्प को त्याग सकें। अब चाहे पराली के निस्तारण में सहायक मशीन की व्यावहारिकता का प्रश्न हो या धान के अवशेष को खेत में खत्म करने वाले रसायन के उपयोग का मामला, उसके सभी पहलुओं पर विचार करने की जरूरत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार वायु प्रदूषण से मरने वाले लाखों लोगों के आंकड़े जारी करता रहता है।
लेकिन हमारे नीति-नियंता इस दिशा में गंभीर नजर नहीं आते। यह प्रदूषण उन लोगों के लिये तो बहुत ही घातक है जो सांस व अन्य गंभीर रोगों से ग्रसित हैं। सरकारों को सूक्ष्म कणों पीएम 2.5 के संकट के समाधान के लिये निर्णायक अभियान चलाना होगा। साथ ही आम लोगों व किसानों को जागरूक करके इस संकट में सहयोग का आग्रह किया जाना चाहिए।