शामत-ए-इंजीनियर

हाल ही में मुझे  जयपुर से चेन्नै जाना पड़ा। बगल वाली सीट पर जो युवक बैठा था, वह मूलतः चेन्नै का था। बातें शुरु हुईं। आरंभिक झिझक के बाद दोनों खुल गए। वह मुझसे ज्यादा बतक्कड़ था। वह अपनी बताने लगा और मैं सुनने लगा। उसने अपने बारे में क्या बताया उसी की जुबानी सुनते हैं –

मेरा नाम सेल्वन है। मैं चेन्नै से हूँ। क्षमा करें चेन्नै से नहीं जबरन इंजीनियर बनाने वालों की धरती से हूँ। यहाँ चाहे लड़का पैदा हो या लड़की उनमें गुण बाद में ढूँढ़ते हैं इंजीनियरी पहले। इस शहर के चप्पे-चप्पे में इंजीनियरी दिखाई देती है। यहाँ तक कि पान लगाने वाला पान पर चूना लगाने को भी इंजीनियरी मानता है और दूध वाला उसमें पानी मिलाने को। ऐसा नहीं है कि देश में इंजीनियर नहीं हैं। हैं लेकिन मेरे परिवार को देखने के बाद मुझे सबसे ज्यादा इंजीनियर यहीं दिखाई देते हैं। हमारे पिता की हम तीन संतानें हैं। 

पिता इंजीनियर हैं और हम तीनों को कैरियर का केवल एक विकल्प मिला ‘इंजीनियर’। इस मामले में मेरे पड़ोस में रहने वाला मित्र बड़ा भाग्यशाली निकला। उसे तीन विकल्प मिले – इलेक्ट्निक इंजीनियरिंग, मेकानिकल इंजीनियरिंग और कंप्यूटर साइंस इंजीनियरिंग। शहर में इतने इंजीनियर हैं कि मक्खियों की संख्या इनके सामने कम पड़ जाती हैं। भिनभिनाते दोनों हैं - एक गुड़ पर तो दूजे प्लेसमेंट पर। बदकिस्मती से यहाँ गुड़ कोई इस्तेमाल करता नहीं और प्लेसमेंट मिलता नहीं। दोनों की किस्मत खराब है।

भीड़ बढ़ जाए तो दही और इंजीनियरिंग में कोई अंतर नहीं रह जाता है। एक छांछ तो दूजा टाइमपास करने का अड्डा बन जाता है। इंजीनियरिंग के इतने सारे कॉलेज खुल गए हैं कि सड़क पर निकम्मा घूम रहे लोगों को भी उसमें दाखिला मिल जाए तब भी सीटें बची की बची रह जाती हैं। ऐरे-गैरे कॉलेजों में इस कोर्स को करने से अच्छा किसी भीड़-भाड़ वाले नुक्कड़ पर पकौड़े तलना है। कम से कम पकौड़े तलने की कला के साथ चार पैसे तो कमा लेंगे। हाँ आईआईटी में इंजीनियरी करने वाले हमसे एक कदम आगे होते हैं। कम से कम उनके पास शनिवार की शाम को क्या करना है, उसका विकल्प तो होता है। आईआईटी में पढ़ने वाला गूगल सीईओ बन जाता है और हम उसी गूगल में प्लेसमेंट की तलाश में सिर खपाते हैं।

ऐसा नहीं है कि मल्टी नेशनल कंपनियाँ हमारे पास नहीं आती। आती हैं। भेड़ों की भीड़ में से कंपनी के सुर में मिमियाने वालों को चुन ले जाती हैं। फिर जावा, सी, सी प्लस प्लस, ओराकल, बटर स्कॉच, वनीला, स्ट्रॉबेरी सब कुछ सिखाती हैं। दुर्भाग्य से वहाँ एक्सेल शीट पर काम करना पड़ता है। पढ़ा कुछ, सीखा कुछ और कर रहे हैं कुछ। शायद इसी को इंजीनियरी कहते हैं। 

यह सब इसलिए बता पा रहा हूँ क्योंकि मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ। मैं पहले कॉग्निजेंट अब सीटीएस ऑफिस में काम करता हूँ। मेरी माँ सबको यही बताती है। लेकिन मैं लोगों को कैसे बताऊँ कि मैं सीटीएस में नहीं एमएस ऑफिस में काम करता हूँ। उसमें भी केवल एमएम वर्ड और एमएस एक्सेल। जबकि एचआर एमएस पॉवर पाइंट में काम करते हैं। वे हमेशा चार स्लाइड बनाते हैं जिनमें तीन स्लाइड – वेलकम, एजेंडा, थैक्यू के होते हैं। चौथा रिगार्ड का होता है। इतने पर भी उनको डर रहता है कि कोई उनका पॉवर पाइंट कॉपी न कर ले। मानो जैसे उन्होंने पॉवर पाइंट नहीं अलाउद्दीन का खजाना बनाया है।

जब किसी को कहता हूं कि मैं सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ तो वे तुरंत पूछते हैं कि फिर ऑफिस में किसी लड़की-वड़की को फसाया कि नहीं। मेरे ना कहने पर वे मेरे मर्द होने पर शक जताने लगते हैं। उन्हें लगता है कि कंप्यूटर के आगे मेंढ़क की तरह आँखें गड़ाए पिज्जा-बर्गर-कॉकटेल्स वाली तोंद बाहर निकाले भला कोई क्या लड़की से इश्क लड़ा पाएगा। बात उनकी सही है, लेकिन मर्दानगी पर शक करना थोड़ी ज्यादती है। वरना देश भर में इतने इंजीनियरों की आबादी जादू टोने से थोड़ी न फैली है।  

कुछ पूछते हैं कि विदेश कब जा रहे हो। मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि पिछले दस साल से पॉसपोर्ट बनवाए कंपनी वालो से मैं भी यही सवाल पूछ रहा हूँ। पासपोर्ट पड़ा हो और हम विदेश न जा सकें इससे बड़ा अपमान कुछ और नहीं हो सकता। इसी शर्मींदगी से बचने के लिए मैने पासपोर्ट से आधार कार्ड बनवाया। फिर दोनों को लिंक किया। उसी पासपोर्ट से ड्राइविंग लाइसेंस और फिर वोटर आईडी बनवाया। इस तरह एक पते के लिए चार पते वाले प्रूफ बनवा लिए। वह भी किराए के मकान के लिए। इंजीनियर बनना किसी के लिए शान तो किसी-किसी के लिए बोझ होता है। सबको बाहर से इसमें मक्खन दिखाई देता है, लेकिन इसकी वसा किसी को दिखाई नहीं देती।  

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657