विचारों की व्यापकता है मुझमें भी,
जाने क्यों तुम पर आकर संकीर्ण हो जाती हूँ?
सारी दुनियां झूठी लगती मुझको,
तेरी प्रीत की गलियों में खो जाती हूँ।
पोस्ट सारे पब्लिक्ली ही होते मेरे,
जाने क्यों तुमपर 'ओनली मी'
का ऑप्शन लगाती हूँ?
पाने की चाहत नहीं मुझको पर,
तुझे खोने से डर जाती हूँ।
हाँ, तुम अथाह समुन्दर हो,
समेट लेते कई नदियों को,
मैं छोटी सी वो नदी हूँ
जो विलुप्त होकर तुझमें,
निज अस्तित्व को पाती हूँ।
बाँधा नहीं किसी भी बंधन में तुमने,
जाने क्यों मैं खुद ही तुझसे बंध जाती हूँ?
स्वर्ण स्वपनों की मृगमरिचिका में,
प्रतिपल साथ तेरा मैं पाती हूँ।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ )