करुणासिंधु माहेश्वरी माता
मैं अबोध अति कपटी हूँ,
दे वर ज्ञान ज्योति का मुझको
माँ मैं मूरख अज्ञानी हूँ,
तुम पापहरणी चामुंडा
माँ मैं कर्मों से दूषित
हुई बैठी हूँ,
कर मेरा उद्धार भैरवी
मैं भवसागर में डूबी हूँ,
त्रिपुरसुंदरी गौरी माता
मैं भय से भयभीत हुई हूँ,
दे अभय का वर मुझको
और मैं कृत कृत्य हो रही हूँ,
जगजननी जय विजया माता
मैं जन तेरा गुणगान करूँ
कर विनाश मेरे अवगुणों
को हे ललिता मैं भ्रमित
अब हो रही हूँ,
आन पड़ी विपदा जग
में हर नर नारी हुए यहाँ
कपटी हैं न कोई यहाँ अब
निश्छल है न मुझमे भी
करुणा की बूँद बची अब
शांति स्वरूपा बुद्धिदात्री तुम
कर शांत मेरा भी चित
महिषमर्दिनी अब नारी
दुर्बल असहाय हुई है
दो बल हे बलशाली
माता अपनी चरण रज
धूल बना कर बल से
भर नारी को अब शैला
की वो काली रूप धरे
हे कमलानने अष्टसिद्धिदात्री
पावक अग्नि सी मूरत माता
अब मैं भी अरज यही करती हूँ,
तुमसे तेरे द्वार खड़े
इस नवरात्रि की शुभ
पावन बेला में
माँ नौका पर बैठी
आ रही हैं फले फूले
ये संसार हे जननी,
बस इतनी ही कामना
कर रही हूँ।
--- लवली आनंद
मुजफ्फरपुर , बिहार