सपनों की बस्ती

जलधि की लहरों में घुलकर

कितनी ही नदियां खोई हैं ।

मिले है रातों के अति दृगनीर

लगता है वर्षों वे रोई हैं।


बेसुध विकल व्याकुल कथाएं

सुख को तड़पती मासूम व्यथाएं।

आंखों में बंद आंसू की वह बूंद

समायी जिसमें करुण कल्पित रूह।


मादक मानिक यौवन निराला

आलोक माधुर्य जीवन प्याला।

माया बिखरी चैतन्य चेतन की

हंसता जाता मद में डूबा मधुशाला।


शून्य क्षितिज के मस्तक पर

सपनों की एक बस्ती आलोकित।

सोती थक कर निस्तब्ध नियति

सांध्य हो या प्रातः पुलकित।


_ वंदना अग्रवाल "निराली "(लखनऊ)