गर उजड़ती हुई शहरों में इमारत देखी
तो ख़तीरा में बसी ख़ूब मुहब्बत देखी
काटा बनवास जहां नेकी ने दुनिया में वहां
हाथों बातिल के हमेशा ही वसीयत देखी
पत्थरों में भी उतर आया ख़ुदा नभ से जब
बुत-क़दा में हुई शिद्दत की अक़ीदत देखी
क्या करें गैर अमल का कोई शिकवा या गिला
जबकि अपनों के दिल-ए-खूँ में अदावत देखी
रात करवट में गुज़रती है तड़पने में दिन
जबसे इक हुस्न-ए-अज़ल की कहीं सूरत देखी
प्रज्ञा देवले ✍️