हिंदी के चाहने वाले हम ही, दुत्कारने वाले हम ही !

राष्ट्रभाषा का अर्थ है आमलोगों की भाषा। जो भाषा आमलोग आसानी से समझते बोलते हों वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। महात्मा गाँधी ने भारत में हिंदी को जनभाषा बताया था। राष्ट्रभाषा बनाने की पहल भी की थी। आजादी के बाद राजभाषा का दर्जा भी मिला। यह सही है कि हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है मगर अंग्रेजी के मुकाबले यह भाषा आज दोयम दर्जे से ऊपर नहीं उठ पायी है। 

इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व आज भी कायम है। शिक्षा और रोजगार की बात करें तो अंग्रेजी के आगे हिंदी कहीं भी नहीं ठहरती। हमारी शिक्षा की बुनियाद अंग्रेजी पर टिकी है। हिंदी पढ़ने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाता है। आजादी के चौहत्तर वर्षों बाद भी जनमानस की धारणा यह है कि हिंदी वाला प्यून या क्लर्क बनेगा और अंग्रेजी जानने वाला अफसर। 

 इस सच्चाई से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। हम हर साल 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाएंगे, 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस, हिंदी पखवाडा़ भी मनाएंगे और इसे आमलोगों की भाषा बता कर गुणगान करेंगे। हम हिंदी दिवस जरूर मनाएं मगर वास्तविकता से मुहं नहीं मोड़ें। हिंदी की सच्चाई जाने, उस पर मंथन करें ताकि जमीनी हकीकत से वाकिफ हो सकें।

आजादी के पिचहत्तर साल बाद भी विश्व में हिंदी का डंका बजाने वाले 150 करोड़ की आबादी वाले भारत में आज भी एक दर्जन ऐसे राज्य है जिनमें हिंदी नहीं बोली जाती। वहां संपर्क और कामकाज की भाषा का दर्जा भी नहीं है इस भाषा को। 

आश्चर्य तो तब होता है जब हम अंग्रेजी सीख पढ़ लेते हैं मगर हिंदी का नाम लेना पसंद नहीं करते। सच तो यह है कि हिंदी भाषी स्वयं अपनी भाषा से लगाव नहीं रखते जहाँ जरुरत नहीं है वहां भी अंग्रेजी का उपयोग करने में नहीं हिचकते। देशवासियों को विचार करना चाहिए कि जिस भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया हैै और जो जन जन की मातृभाषा है, उसी के बोलने वाले उसे इतनी गिरी हुई नजरों  से क्यों देखते हैं । 

हिंदी की इस दुर्दशा के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ? इस पर गहनता से चिंतन और मनन की अहम जरूरत है। हिंदी भाषी राज्यों की हालत यह है कि वहां शत प्रतिशत लोग हिंदी भाषी है मगर प्रदेश के बाहर से आए चंद अधिकारियों ने अपना कामकाज अंग्रेजी में कर मातृभाषा को दोयम दर्जे की बना रखा है। हम दूसरों को दोष अवश्य देते हैं मगर कभी अपने भीतर  झांककर नहीं देखते। सच तो यह है की जितने दूसरे दोषी है उससे कम हम भी नहीं है।

मदन वर्मा "माणिक "

इंदौर, मध्यप्रदेश

 मो. 6264366070