एक हैं लूटन भैया। औपचारिक रूप से राजस्व विभाग और अनौपचारिक रूप से लेन-देन विभाग में काम करते हैं। वे अपनी करनी के लिए कम और कथनी के लिए अधिक जाने जाते हैं। ऊपर से खुद को सर्वज्ञ और दूसरों को अनभिज्ञ समझने का अहंकार अलग से पाल रखा है। हैं तो सरकारी कर्मचारी लेकिन व्यवहार किसी तरकारी बेचने वाले से कम नहीं है। हमेशा दिमाग में लेन-देन के इलेक्टॉन कुलबुलाते रहते हैं। इसी कुलबुलाहट की बदौलत चार कोठियाँ खड़ी कर दी हैं। घर में सभी सदस्यों के लिए चार चक्का गाड़ियों का इंतजाम है। कुल मिलाकर आँखें जमीन पर कम आसमान पर ज्यादा टिकी रहती हैं।
पिछले कुछ दिनों से लूटन भैया के मेज के नीचे वाली कमाई में बहुत कमी आ गयी थी। यही वजह थी कि बीच-बीच में अपने कर्मचारियों पर झल्ला उठते थे। एक दिन किसी ने उन्हें असहिष्णुता का पुलिंदा कह दिया। धीरे-धीरे दबी जुबान से सभी लोग यही कहने लगे। जब यह खबर लूटन भैया तक पहुँची तब उनकी उठी भौंहे, चौड़ाई आँखें और लाल-पीली नाक ने कर्मचारियों को सबक सिखाने की ठान ली। आनन-फानन में बैठक का आयोजन किया गया। लूटन भैया कर्मचारियों को शहद लगी छुरी से अपनी बातों का मज़ा चखाना चाहते थे।
शहद लगी छुरी का खेल शुरु हुआ। कहने लगे - एक थाल मोतियों से भरा, सबके सर पर औंधा धरा वाली पंक्ति इंसानी मस्तिष्कीय कणों पर फिट बैठती है। यदि इन कणों की गिनती करने बैठ जाएँ, तो यह जीवन पर्याप्त नहीं होगा। चूंकि कण अनंत हैं इसलिए हमारी समस्याएँ भी अनंत हैं।
कण की समस्या और समस्या के कण में केवल दृष्टिकोण का अंतर होता है। वैसे तो ये कण धधकते शरीर के शांत पड़ जाने पर भी होते हैं, किंतु जो मूल्य जीते जी कुछ करने का है वह मरने के बाद करनी को चिढ़ाने भर के लिए काम आते हैं। एक ही तरह का मस्तिष्क दुनिया भर को मिला है, लेकिन कोई उसे जोड़ने के लिए इस्तेमाल करता है तो कोई तोड़ने के लिए। कोई शैतान में इंसान ढूँढ़ने के लिए तो कोई इंसान में शैतान के लिए।
यह दुनिया छह को नौ और नौ को छह कहने में इतनी व्यस्त है कि उसे हमेशा अपना नजरिया ही सच लगता है। सामने वाले का नजरिया, नजरिया न हुआ बहस करने का भेड़चाल वाला मुद्दा हो गया। नजरिए की इसी दुविधा को ‘असहिष्णुता’ कहते हैं।
अत्यंत असहनीय और जगव्यापी है यह असहिष्णुता। कभी ‘बाल की खाल’ तो कभी 'खाल के बाल' के बहाने एक-दूसरे से लड़वाती है, तो कभी ‘हेटस्पीच शब्दावली’ में आए दिन बढ़ोतरी करवाती है। यही कारण है कि नेता हिंदू को मुस्लिम से, ऊँच को नीच से, गऊ को सुअर से लड़वाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। चार वर्षों तक सड़कों, चौराहों पर भटकने वाली सहिष्णु गाय पाँचवें वर्ष में वोट बटोरने वाली असिहष्णु ईवीएम मशीन बन जाती है। सहिष्णु बनने से केवल हमदर्दी मिलती है, असिहष्णु बनने से वोट।
कोई एलोपैथी तो कोई आयुर्वेद पर, तो कोई वैक्सिन तो कोई गोमूत्र पर असहिष्णु हो जाता है। अच्छाई में बुराई खोज निकालना, दिन को रात और रात को दिन कहना असहिष्णुता की उर्वर भूमि है। आप लोग सोच रहे होंगे कि मैं यह सब बिन सिर-पैर की बात क्यों कह रहा हूँ? दरअसल मैं आपको असहिष्णुता का मतलब समझाना चाहता हूँ। पिछले कुछ दिनों से मेरी आमदनी में कमी आई है। स्वाभाविक है कि समुंदर में कम होता पानी नदियों और तालाबों को भी सुखा देता है। इसलिए मेरी झल्लाहट को असहिष्णुता नहीं आपकी चिंता समझिए।
अपना भाषण समाप्त करते हुए लूटन भैया पानी की बोतल के लिए चपरासी पर झल्ला उठे।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657