हाल के दिनों में लगातार बारिश और भूस्खलन से हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों में हुई तबाही ने हमें चेतावनी के साथ सबक दिया है कि देश को वैज्ञानिक ढंग से शीघ्र राहत पहुंचाने वाले आपदा प्रबंधन की सख्त जरूरत है। पंजाब के कई जिलों में आयी बाढ़ ने इस जरूरत को और आवश्यक बनाया है। निस्संदेह, ग्लोबल वार्मिंग के घातक प्रभावों के चलते बारिश के पैटर्न में आये बदलाव ने आपदा प्रबंधन को एक गंभीर मुद्दा बना दिया है।
जिसके लिये केंद्र व राज्यों को एक लंबा रास्ता तय करना है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया है कि इस बार मानसून के दौरान हुई तबाही ने राज्य में बुनियादी ढांचे को इतना नुकसान पहुंचाया है कि उसके पुनर्निर्माण में एक साल से अधिक का समय लग सकता है। दरअसल, दो माह से लगातार हो रही बारिश के विनाशकारी प्रभाव के चलते इस पहाड़ी राज्य को लगभग दस हजार करोड़ का आर्थिक नुकसान होने की आशंका है।
निस्संदेह मौजूदा समय में राज्य सरकार की प्राथमिकता हिमाचल में राहत और बचाव कार्यों को अंजाम देने की है, लेकिन राज्य के सतत विकास के लिये जरूरी है कि एक दीर्घकालीन नीति को अमल में लाया जाये। जिससे प्राकृतिक आपदाओं के दौरान जन-धन की हानि को कम किया जा सके। दरअसल, आज इस बात की सख्त जरूरत है कि विकास कार्यों को चरम मौसम की आवृत्ति व तीव्रता को ध्यान में रखते हुए अंजाम दिया जाये।दरअसल, कारगर आपदा प्रबंधन के जो बुनियादी तत्व हैं, उनमें आपदा के घातक प्रभाव की रोकथाम, मुकाबले की तैयारी, त्वरित प्रतिक्रिया और जन-धन हानि को कम से कम करने की कोशिश आदि शामिल हैं।
हालिया घटनाओं के बाबत केंद्र सरकार का दावा है कि अब आपदाओं के प्रति देश का दृष्टिकोण आपदा राहत केंद्रित और प्रतिक्रियावादी नहीं है। स्पष्ट रूप से प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, आर्थिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग और राष्ट्रीय, राज्य व जिला स्तर पर संबंधित एजेंसियों को मजबूत करने पर जोर दिया गया है।
वहीं हकीकत यह भी है कि हिमाचल और पंजाब में हुई तबाही ने आपदा प्रबंधन प्रणाली में बड़ी खामियां उजागर कर दी हैं। निस्संदेह भारत तभी एक आपदा प्रतिरोधी राष्ट्र बनेगा जब उसके राज्य किसी भी प्राकृतिक आपदा से जूझने के लिये तत्पर व संसाधनों से सुसज्जित होंगे। बीते जून माह में केंद्र सरकार ने देशभर में आपदा प्रबंधन के लिये प्रमुख योजनाओं की घोषणा की थी। जिसमें देश के सात संवेदनशील शहरों में बाढ़ के जोखिम को कम करने हेतु ढाई हजार करोड़ रुपये की परियोजना शामिल थी।
साथ ही विभिन्न इलाकों में राहत के लिये 825 करोड़ रुपये की राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम शमन परियोजना की भी घोषणा हुई थी। निस्संदेह, ऐसी तमाम योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन तभी संभव है जब केंद्र व राज्य सरकारों में बेहतर तालमेल हो, सूचनाओं का आदान-प्रदान हो तथा पर्यावरण अनुकूल योजनाओं को प्रोत्साहन मिले। यदि ऐसा नहीं होता तो ये आपदाएं चाहे किसी भी रूप में देश के किसी भी हिस्से में आएं, आर्थिक विकास में बाधक ही बनेंगी।