देते जब आशीष है, होते मंगल काज है ||
कागा बनकर बोलते, तू ही मेरा रूप है |
मरकर जीवित है सभी, पाया दिव्य अनूप है ||
सुंदर देखो रीति ये, करे आत्म विस्तार है |
पितर पक्ष के श्राद्ध से, होते भव से पार है ||
पैनी पहने दें रहा, पितरों को जल आज है |
पिण्डा पारे पूत जब, सारे कृत्य सुकाज है ||
गंगा तर्पण सुत करे, करे भोज विश्वास है |
पुरखे खाये प्रेम से, पावन आश्विन मास है ||
पितृ ऋण को सुत तार के, श्राद्ध कर्म सब कीजिये |
श्रेष्ठ पवित्र इस भाव से, पिंडदान अब दीजिये ||
श्राद्ध करे श्रद्धा सहित, होता सुत वह श्रेष्ठ है |
इच्छित फल उसको मिले,रखता मनवां चेष्ट है ||
तर्पण करते जो सदा, जाते गंगा घाट है |
खुले मोक्ष का द्वार है, नैन निहारे बाट है ||
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कवयित्री
कल्पना भदौरिया "स्वप्निल "
लखनऊ
उत्तरप्रदेश