वीरेंद्र बहादुर सिंह
जन्म से या किसी दुर्घटना के कारण शारीरिक-मानसिक दिव्यांगता वाले लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या देश और दुनिया में उपेक्षा और दया का जीवन गुजार रही है। भारत में पहले ऐसे लोगों को अपंग, फिर विकलांग कहा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्हें दिव्यांग कहा और अनेक माध्ममों से इसे प्रचारित भी किया। अंग्रेजी भाषा में इनके लिए हैंडीकैप, फिजिकली चैलेंज्ड, डिफरेंटली एबल, डिसेबल और स्पेशल प्रिविलेज्ड जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। इस तरह इनकी पहचान तो बदलती रही, पर स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया।
सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में 2.19 करोड़ दिव्यांग थे। जो एक दशक बाद सन् 2011 में बढ़ कर 2.68 करोड़ हो गए थे। इस तरह 2011 की 121 करोड़ की आबादी में 2.21 प्रतिशत दिव्यांग थे। इनमें से 1.5 करोड़ पुरुष और 1.18 करोड़ महिलाएं थीं। दिव्यांगों की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या गांवों की रहने वाली है। दिव्यांगों की साक्षरता दर 55 प्रतिशत है। पर स्नातक 5 प्रतिशत ही हैं। देश के 3 करोड़ दिव्यागों में से मात्र 36 प्रतिशत ही रोजगार पाते हैं। देश की शिखर की 5 प्राइवेट कंपनियों में 0.5 प्रतिशत दिव्यांगों को ही रोजगार मिल पाता है। इसलिए ज्यादातर दिव्यांग जीवन निर्वाह के लिए अन्य पर ही निर्भर रहते हैं।
भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य की सूची 9 के अनुसार राज्य दिव्यांगों के पुनर्वास और सहायता के लिए जिम्मेदार है। फिर भी संविधान के अमल में आने के 45 सालों बाद 1995 में संसद ने दिव्यांगों के लिए दिव्यांग धारा बनाई। दिव्यांग व्यक्ति (समान हक, अधिकारों का संरक्षण और संपूर्ण हिस्सेदारी) अधिनियम 1995 में दिव्यांगों के लिए शिक्षा, रोजगार, अवरोधमुक्त वातावरण बनाने और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की गई थी। इसके बाद कानून में सुधार कर के, नया कानून और राष्ट्रीय नीतियां बनती रही है। दिव्यांगों के लिए पहली राष्ट्रीय नीति को अधिक से अधिक आधुनिक बनाने के लिए सरकार ने 92 पेज का मसौदा अभी जल्दी ही सार्वजनिक विमर्श के लिए पेश किया गया है।
1995 की दिव्यांग धारा में 7 तरह के दिव्यांगों को शामिल किया गया था। परंतु राइट्स आफ पर्सन विद डिसेबिलिटीज एक्ट, 2016 में विकलांगता की कैटेगरी 3 गुनी बढ़ा कर 21 कर दी गई। एसिड अटैक की पीड़िताओं, पार्किंसन, हीमोफीलिया, थेलेसेमिया, कुष्ठरोग मुक्ति के बाद दिव्यांगता सहित शारीरिक-मानसिक-सामाजिक दिव्यांगता को इस कानून में शामिल किया गया। जीवन के तमाम क्षेत्रों में दिव्यांगों को समान हक और मानवीय गरिमा की प्राप्ति के उद्देश्य वाले इस कानून में 40 प्रतिशत दिव्यांगता वाले व्यक्ति को शिक्षा और रोजगार में 4 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है। दिव्यांग सार्वजनिक स्थानों का उपयोग आसानी से कर सकें, इस तरह के मकानों के निर्माण की व्यवस्था की गई है। दिव्यांगों के प्रति भेदभाव करने वाले को सजा, समाजसुरक्षा योजनाएं और बच्चों तथा महिलाओं के लिए इस कानून में खास सुविधाओं की व्यवस्था है।
जबकि कानूनी व्ववस्था और दिव्यांगों के प्रति समाज की पूर्ण सहानुभूति की बात की अपेक्षा वास्तविकता कुछ अलग है। समान हक दिव्यांगों के लिए अभी भी न जाने कितने जोजन दूर है। इसका एक उदाहरण तो देश की सर्वोच्च मानी जाने वाली सिविल सेवा में इनके प्रति किए गए व्यवहार से पता चलता है। यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में कुल उम्मीदवारों में से 0.30 प्रतिशत ही उत्तीर्ण होते हैं। 2013 में 60 प्रतिशत दिव्यांगता वाली इरा सिंघल यूपीएससी टाॅपर थीं। उस साल 9 दिव्यांगों ने सिविल सेवा परीक्षा क्लियर की थी। पर किसी को नियुक्ति नहीं मिली थी। कोर्ट-कचेहरी और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद 9 में से 7 की नियुक्ति हुई थी। देश की सब से बड़ी नौकरी पाने में दिव्यांगों की यह हालत हो तो उनके प्रति दया और सहानुभूति की बात झूठी ही लगती है।
2011 में 1995 की दिव्यांग धारा के अनुसार 7 तरह की दिव्यांगता वाले लोगों की संख्या 2.68 करोड़ थी। 2016 के कानून में 21 तरह की दिव्यांगता को मान्यता दी गई। परंतु इसके कारण दिव्यांगों की संख्या में जो बढ़त्तरी हुई, उसके हिसाब से कानून में कोई व्यवस्था नहीं की गई। 1995 में दिव्यांगों को शिक्षा और नौकरी में 3 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। दिव्यांगता के प्रकार में 3 गुना बढ़ोत्तरी की गई, पर आरक्षण मात्र एक प्रतिशत ही बढ़ाया गया। इससे दिव्यांगों की शिक्षा और रोजगार यथावत रहता है।
शिक्षा और रोजगार में दिव्यांगों के प्रतिनिधित्व के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण अपर्याप्त है। हाल में घोषित विमर्श के लिए पेश की राष्ट्रीय दिव्यांग नीति के ड्राफ्ट में कौशल विकास और रोजगार को एक साथ रखा गया है। शायद सरकार के ये दोनों मंत्रालय एक साथ हैं, इसलिए ऐसा किया गया है। पर यह दिव्यांगों के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। देश में 64 प्रतिशत दिव्यांग बिना रोजगार के हैं। ऐसे में एकदम स्पष्ट नीति की आवश्यकता है।
पालिसी ड्राफ्ट के 10 क्षेत्रों में से एक सर्टिफ़िकेशन भी है। 2011 के 2.68 करोड़ दिव्यांगों में से सरकार आधे ही दिव्यांगों को चिकित्सीय प्रमाणपत्र दे सकी थी, ऐसे में इस प्रक्रिया को और आसान बनाने की जरूरत है। 50 प्रतिशत से भी अधिक दलित, आदिवासी, पिछड़े दिव्यांग बच्चे शिक्षा से वंचित हों तो दिव्यांगों को अलग से शिक्षण संस्थाओं के बदले कथित मुख्य धारा की ही शिक्षण संस्थाओं भें शिक्षा मिले, इस तरह की सामाजिक रचना की जरूरत है। दिव्यांगों को अलग नहीं, समाज का ही एक अंग बनाने के लिए अभी भी बहुत चुनौतियां स्वीकार करने की जरूरत है। लाखों बैंक एटीएम और सार्वजनिक स्थानों के उपयोग करने के लिए सरल बनाना भी एक चुनौती है।
हमारे यहां ऐसा माहौल है कि दिव्यांगों के लिए दया और सहानुभूति भ्रम लगता है। ये देश के नागरिक होने के रूप में समता, न्याय और सहभागिता के हकदार हैं। इन्हें यह अहसास कराना भी एक बड़ी चुनौती है। मात्र कानूनी व्यवस्थाओं से दिव्यांगों का भला नहीं होने वाला। सरकारी नीतियों का कायदे से अमल हो, इसके लिए तंत्र और सहानुभूति रखने वाले समाज के लिए दिव्यांग आज भी तरस रहे हैं।
देश के सब से अधिक साक्षरता वाले राज्य केरल में अभी हाल में प्रदर्शित हुई मलयालम फिल्म "कडुवा' में दिव्यांगों के बारे में बहुत ही अनुचित संवाद पर हुए विवाद से साफ लगता है कि अभी इस दिशा में कितनी लंबी मंजिल तय करनी है। फिल्म के अभिनेता और निर्माता ने बिना शर्त माफी मांगी, पर ऐसे लोगों को कैसे माफ किया जा सकता है? दिव्यांगों और उनके समर्थकों को किसकिस मोर्चे पर अधिकार और न्याय की लड़ाई लड़ना है, इसका गहरा असर कडुवा फिल्म के विवाद से मिलता है।