हम में निहित व्योम और लहु शिराएँ,
निराशा के बादल से फिर क्यों घबराएँ?
चोटें खाकर जब हम विफरेंगें,
तनेंगे और ज्यादा ही निखरेंगे।
निराशा में ही आशा छुपी है,
दुःख की बदरी भी कब तक रुकी है?
भाग्य जब हम पर चोट करती है,
वह हमें और भी सख़्त करती है।
चट्टान से भी मजबूत हम होते हैं,
विपदाओं का गरल जब पीते हैं।
तुंग शैल पर विजयी परचम फहराते हैं,
पीयूष शशि से लेते,कीर्तिमय जीवन जीते हैं।
आस का दामन थाम लो,त्रासदी ये चली जायेगी,
ज्यों निशा के बाद उषा है आती,धरा सुधा बरसायेगी।
डर डर के जीना क्या,स्वयं मृत्यु द्वार पे पग धरो,
डर जाये काल भी तुमसे,कर्मपथ पर हुंकार भरो।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)