सब उतावली में है घूमते-फिरते,
सब फरमान हाथों हाथ लिए जाऐं,
नहीं तो फिर अपना सिर धुनते !
सब्र करते रहते तो अच्छा ही सिला होता,
जो दुख मिला अभी, वो तो न मिला होता,
अच्छा ही कुछ होता गर सब्र किया होता,
रब की मैहर होती, सब्र का फल मीठा होता !
सब्र कहां मिलता जो सरे बाजार घूमता,
जो बाजार में ढूंढता, वो सब्र मेरे भीतर था,
सब्र-सब्र करते, जल्दी मचा गये, सुलह के लिए
भाई लोग जो आये थे, झगड़ा बड़ा गये !
दूसरों को उपदेश जो सब्र का देते हैं,
खुद वो उतावली मचाये फिरते हैं,
सब्र ना बिकता है, ना खरीदा जाता है,
सब्र लाया जाये यह अपने आप ही आता हैं !
- मदन वर्मा " माणिक "
इंदौर, मध्यप्रदेश