ऊसर मरन, विदेश जरन, अबे कुछ बाकी बा
भला हो लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जो आपातकाल की यातनाओं के बाद भी उनसे पुत्री का नाता तोड़े नहीं थे। इसके बाद भी वह तरह-तरह का आयोग झेलीं। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी इससे उबर तो गईं लेकिन परेशानियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। दुर्घटना में उन्होंने युवा पुत्र खो दिया। बाद में खुद भी आतंकवाद से लड़ते हुए कुर्बान हो गईं। उनके पुत्र राजीव गांधी भी आतंकवाद के हाथों शहीद हुए।


दिलदारनगर में एक पत्रकार थे, बंशीधर निराला। फत्तेपुर के मास्टर द्वय (स्वर्गीय श्री रमाशंकर सिंह यादव और  स्वर्गीय श्री राजेन्द्र सिंह कुशवाहा) उन्हें बंशी नेता कहते थे। उनके पास कोई छापाखाना नहीं था, लेकिन उनका अखबार रोज प्रकाशित होता था । 

थाने वाले भी उन्हें पसंद नहीं करते थे। थाने में हिनहिनाने वाले तत्कालीन कलमकार भी उन्हें पसंद नहीं करते थे। इसलिए वह भी थाने नहीं जाते थे। एक पैर से कमजोर थे, लँगड़ा कर चलते थे। फिर भी वह स्थानीय खबरें पा जाते थे और पाते ही उसे प्रकाशित कर देते थे। उनकी खबर होती थी, अमुक गांव में हत्या, अमुक गांव में चोरी, अमुक का निधन, अमुक दिन स्कूल बंद रहेगा। इसे प्रकाशित करने के लिए वह पुराने अखबार का उपयोग करते थे। कंडे की कलम से उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखकर एक छोटे से श्यामपट पर चिपका देते थे जो उनकी दुकान खुलने के साथ ही टँग जाता था।

बाद में वह देश व प्रदेश की खबरें भी प्रकाशित करने लगे। इसके लिए वह रेडियो से आने वाला धीमीगति का समाचार सुनते थे और देश प्रदेश की एक-एक प्रमुख खबर अपने अखबार में लेते थे। 

निराला जी की एक खबर का शीर्षक मुझे आज भी याद है। शीर्षक था, देश में आपातकाल, मुँह से बोलने पर प्रतिबंध। 26 जून 1975 की सुबह मैंने उनका अखबार पढ़ा और उनसे पूछा कि यह मुँह से बोलने पर प्रतिबन्ध ? जवाब में उन्होंने कहा कि यहाँ से तुरन्त सरको। मैं भी सरक रहा हूँ। मैंने कहा, कुछ बताइए तो उन्होंने कहा, ऊसर मरन, विदेश जरन, अबे कुछ बाकी बा। जो बाकी है, वही आगे लोकतंत्र के साथ होने जा रहा है।

वास्तविक स्थिति समझने के लिए अबे कुछ बाकी बा, कहावत को ठीक से समझना आवश्यक है जो इस प्रकार है--

" एक पण्डित जी को ऊसर पड़े एक खेत में एक अधजली खोपड़ी मिली। पण्डित जी मस्तिष्क की रेखा पढ़ने के विशेषज्ञ थे। उन्होंने अधजली खोपड़ी की रेखाओं को पढ़ा। उसपर लिखा था, ऊसर मरन, विदेश जरन, अबे कुछ बाकी बा।

पण्डित जी ने सोचा कि यह आदमी इस ऊसर में मर गया। यानी ऊसर मरन सही है। परदेशी है। यहीं जल गया। यानी विदेश जरन भी सही है। यह आदमी मर चुका है, जल चुका है तो बाकी क्या है? यह जानने के लिए वह अधजली खोपड़ी को गमछे में बांध लिए। घर पहुंचे। चूंकि खोपड़ी थी, इसलिए गमछा पत्नी को देने की जगह खूंटी पर टांग दिए और स्नान करने चले गए।

पत्नी ने सोचा कि रोज तो पण्डित जी गमछा मुझे देते थे। आज क्यों नहीं दिए? यह जानने के लिए गमछे को खोला तो नज़र आई अधजली खोपड़ी। पत्नी ने सोचा कि पण्डित जी इस खोपड़ी में कोई कीमती द्रव्य छिपा कर रखे हैं। द्रव्य निकलने के लिए पत्नी ने अधजली खोपड़ी को ओखर में डाला और तोड़ने के लिए मूसर से कूटने लगी। इतने में पण्डित जी नहाकर घर में आ गए। उन्होंने पत्नी से पूछा, क्या कूट रही हो। पत्नी ने बताया कि वही जो तुम लाए हो। पण्डित जी ने देखा कि अधजली खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो चुके हैं। यह देखकर वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर कहा, " यही बाकी था।"

आपातकाल में लोकतंत्र की क्या गति हुई, किसी से छिपी नहीं है। वह समाप्त हुआ। श्रीमती इन्दिरा गांधी गईं और जनता पार्टी आयी। इसके बाद वह लगातार जनता पार्टी के निशाने पर रहीं। 

भला हो लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जो आपातकाल की यातनाओं के बाद भी उनसे पुत्री का नाता तोड़े नहीं थे। इसके बाद भी वह तरह-तरह का आयोग झेलीं। 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी इससे उबर तो गईं लेकिन परेशानियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। दुर्घटना में उन्होंने युवा पुत्र खो दिया। बाद में खुद भी आतंकवाद से लड़ते हुए कुर्बान हो गईं। उनके पुत्र राजीव गांधी भी आतंकवाद के हाथों शहीद हुए।

स्थिति क्या है, आज वे लोग या वे संगठन भी उनके ऊपर ऊंगली उठा देते हैं जो स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों के साथ थे। जिनका छोर महात्मा गांधी की हत्या से भी जुड़ा है। इस एक बड़ी चूक की वजह से स्वतन्त्रता संग्राम का हीरो परिवार क्या-क्या झेला और क्या-क्या झेल रहा है, यह सत्य किसी से छुपा नहीं है।

जो लोग भारत के बैंकों को लुटवायें हैं या लुटवा रहे हैं, जो लोग सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में लगातार बेच रहे हैं या बेच देने की ओर पहुँचा रहे हैं, जो लोग देश के नाम पर दनादन कर्ज लिए हैं, जो लोग मान लिए हैं कि लगातार झूठ बोलकर भारत की जनता को बरगलाया जा सकता है, जो लोग सोच रहे हैं कि नफ़रत फैलाकर पापों पर पर्दा डाला जा सकता है, उन लोगों को फोन न उठाने की घटना के संकेत को समझना चाहिए। जिन पदों से वर्ष 2014 से पहले तक फोन आना गौरव था, वे पद अब किस मोड़ पर हैं कि उनका फोन भी अब नहीं उठाया जा रहा है।

23 मई - माने गई, सच हो गया तो ओएनजीसी जैसे नवरत्न संस्थानों को भी कंगाल बनाने वालों के साथ क्या-क्या हो सकता है, इसे सोचिए। राफेल में क्या होगा, एचएएल को हटाकर अम्बानी को पार्टनर बनाने में क्या होगा, रिजर्ब बैंक पर भी हाथ लगाने के मामले में क्या होगा, फिर उस नरसंहार को सोचिए जिसमें  सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बरसों बाद असहाय बिलकिस बानों को न्याय मिला है। फिर इस कहावत, ऊसर मरन, विदेश जरन, अबे कुछ बाकी बा, को सोचिए।

इसलिए 23 मई को गई, आसान नहीं है। ये सब लोग किसी भी स्थिति तक जाएंगे, बने रहने के लिए। फिर नहीं गई तो आगे लोकतंत्र के साथ क्या होना है, देश के सार्वजनिक उपक्रमों के साथ क्या होना है, उसका भी आकलन, ऊसर मरन, विदेश जरन, अबे कुछ, बाकी बा, कहावत के आधार पर खुद कर लीजिए ।

जन-जन में गूंज रहे ये सवालात आज लिखित खबर नहीं हैं। इसलिए आज बंशीधर निराला जी की या गई। वह होते तो उनके अखबार में इस आंकलन की खबर जरूर होती और उसी तरह से एक वाक्य में होती जैसे 26 जून 1975 को थी कि देश में आपातकाल- मुँह से बोलने पर प्रतिबंध। 

 

धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव (वरिष्ठ पत्रकार)